• Shabdabheda Prakash- शब्दभेदप्रकाश
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Shabdabheda Prakash- शब्दभेदप्रकाश

Author(s): Prof. Gaya Charan Tripathi
Publisher: Bhogilal Leherchand Institute Of Indology
Language: Sanskrit
Total Pages: 170
Available in: Hardbound
Regular price Rs. 400.00
Unit price per

Description

शब्दभेदप्रकाश ग्रन्थ के रचनाकार श्री महेश्वरदेव एक वैद्य या चिकित्सक परिवार से थे। उन्होंने ग्रन्थ में अपने वंश की लम्बी चिकित्सकीय परम्परा का उल्लेख किया है। पूर्वजों में से एक रविचन्द्र ने चरक संहिता पर टीका भी लिखी थी। स्वयं चिकित्सा करते थे या नहीं उसका प्रमाण मिलता नहीं है किन्तु उत्कृष्ट शब्द-चिकित्सक अवश्य थे। उन्होंने सन् ११११ ई. में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण शब्दकोश 'विश्वप्रकाश' की रचना की थी। इस ग्रन्थ के परिशिष्ट रूप में ई. १११२ में 'द्विरूपकोश' की रचना की थी। संस्कृत कोश वाङ्मय में 'अमरकोश' के बाद 'विश्वप्रकाश' या 'विश्वकोश' की सर्वाधिक प्रतिष्ठा है। इस कोश की रचना के बाद केवल पू. वर्षों में ही बंगाल से लेकर गुजरात तक इसकी प्रसिद्धि हो चुकी थी। इस ग्रन्थ का मुख्य उद्देश्य यह रहा कि एक ही शब्द, उसी अर्थ में किस प्रकार थोडे से ध्वनि परिवर्तनों के साथ बोलचाल की भाषा में साहित्य में प्रयुक्त होता है ? इस दृष्टि से सम्पादक ने इस ग्रन्थ का नाम 'द्विरूपकोश' अधिक सार्थक माना है।

श्री महेश्वरदेव ने अपने समय तक के एक ही संस्कृत शब्द के जितने भी रूप प्रचलित थे उन सब का संकलन इस कोश में किया है। इसमें बहुत से शब्द संस्कृत व्याकरण की दृष्टि से शुद्ध नहीं है, कुछ प्राकृत भाषा के प्रभाव से तत्कालीन संस्कृत में ग्रहण कर लिए थे। उनका तथा साहित्यिक संस्कृत में तत्सम शब्दों के जितने भी वैकल्पिक रूप थे उन सभी का संकलन इसमें पाया जाता है। शब्दों में कुछ विशिष्ट कारणों से काल-क्रमानुसार प्रायः ध्वनि-परिवर्तन या विकार होता रहता है। महर्षि यास्क ने शब्द के मूल स्वरूप में होने वाले परिवर्तन के पाँच नियम गिनाए हैं। वर्णागम, वर्णविपर्यय, वर्णविकार, वर्णलोप एवं शब्द के निर्माण में प्रयुक्त मूल धातु के अर्थ का विस्तार या संकुचन । 'शब्दभेदप्रकाश' में इन सभी के और आधुनिक भाषा विज्ञान में स्वीकृत ध्वनि परिवर्तन या वर्ण परिवर्तन के प्रायः सभी नियमों के यथेष्ट उदाहरण उपलब्ध है। इस दृष्टि से यह कोश-ग्रन्थ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।

 

आमुख

'सर्वचा व्यवहर्तव्यं, कुतो ह्यवचनीयता ?

यथा स्वीणां तथा वाचां साधुत्वे दुर्जनो जनः ।'

- उत्तररामचरितम् १/५

महाकवि भवभूति ने 'उत्तररामचरित' में सीता का संदर्भ देते हुए चारित्र्य-शुद्धि के प्रसङ्ग में पुरुषों की एक सामान्य और सार्वजनिक धारणा का उल्लेख करते हुए भाषा के साथ उसकी तुलना की है और एक बड़ी मार्मिक बात कही है कि जब स्त्रियों की और भाषा की शुद्धता का प्रसङ्ग उपस्थित होता है तो सामान्य जन. यहाँ तक कि सज्जन भी दुर्जनों की भांति व्यवहार करने लगते हैं। उनकी सामान्य धारणा अशुद्धता की ओर होती है और नारी को, या भाषा-शास्त्री को, प्रमाण दे-देकर सिद्ध करना पड़ता है कि वह (नारी), या उसका प्रयोग शुद्ध और व्याकरण सम्मत है। इसलिये जिसको जो शब्द या वाक्य-विन्यास ठीक लगे उसी का वह व्यवहार करे, उसी को लिखे और बोले। आलोचना तो प्रत्येक अभिव्यक्ति की हो सकती है, दोष तो किसी भी वस्तु में निकाले जा सकते हैं (सर्वधा व्यवहर्तव्यं कुतो ह्यवचनीयता ?)। सीता कितनी भी शुद्ध क्यों न हों, राम भी चाहे कितना ही प्यार उनसे करें पर अन्ततः एक धोबी के कहने से महल से निकाली हो जाती हैं और जो स्वयं कभी कवि नहीं बन सके, वे आलोचक बनकर अच्छे से अच्छे काव्यों की धज्जियाँ उड़ाया करते हैं।

भवभूति को संस्कृत भाषा पर कालिदास से भी अच्छा अधिकार था यह सभी निष्पक्ष आलोचक मानते हैं। भवभूति को स्वयं भी इसका आभास था, इसीलिये वे सूत्रधार के माध्यम से यह कहने का साहस करते हैं कि "यह नाटक उसकी कृति है जिस पण्डित के [विचारों के पीछे-पीछे] वाग्देवी एक वशीभूत नारी की भाँति चला करती है" (द्र० 'यं ब्रह्माणमियं देवी वाग् वश्येवानुवर्तते', उ.रा.च. की प्रस्तावना)। लेकिन उनके समसामयिक दुर्धर्ष आलोचकों ने उनको कुछ कम परेशान नहीं किया होगा अन्यथा उनको विषादपूर्ण मनःस्थिति में यह नहीं लिखना पड़ता