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  • Ayurvedic Pharmacological Properties: आयुर्वेदीय औषधि गुण-धर्म विज्ञान by Dr. Hiralal R. Shivhare
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Ayurvedic Pharmacological Properties: आयुर्वेदीय औषधि गुण-धर्म विज्ञान

Author(s): Dr. Hiralal R Shivahare
Publisher: Chaukhamba Sanskrit Pratishthan
Language: Sanskrit & Hindi
Total Pages: 944
Available in: Paperback
Regular price Rs. 1,200.00
Unit price per

Description

प्रस्तुत धन्य 'आयुर्वेदीय औषधि गुणधर्म विज्ञान आधुनिक चिकित्सा सम्मत वैज्ञानिक तथ्यों पर प्रकाश डालते हुए लिखी गयी है। आधुनिक चिकित्साविज्ञान में तुलना करने पर लेखक को यह ज्ञात हुआ कि पुरातनकाल में जब आयुर्वेद चरमोत्कर्ष दर था तब तत्कालीन महर्षि चरक की काय-विकित (Medicine)' मध्बन्धी तथा रोग-निदान (Diagnosis) सम्बन्धी ज्ञान, आधुनिक-चिकित्सा विज्ञान (Modem Medicine) से कम नहीं था। उदाहरण स्वरूप राजयक्ष्मा (रोगों का राजा) रोग का विशद वर्णन जिसके अन्तर्गत आधुनिक-चिकित्सा विज्ञान मम्मत Tuberculosis (अनुलोम-क्षय या राजयक्ष्मा) तथा AIDS (प्रतिलोम-क्षय या राजयक्ष्मा) का समावेश हो जाता है। पर्याप्त प्रमाणों के साथ लेखक ने इस पर पृष्ठ नं० 400 से 424 तक सविस्तार प्रकाश डालने का समुचित प्रयास किया है। कृपया पाठक इसका अवलोकन यहीं पर करें। आयुर्वेदीय रचना-शारीर (Anatomy) एवं क्रिया-शारीर (Physiology) के प्रमुख विषयों पर 'आधुनिक चिकित्सा विज्ञान (Modern-Medical Science) में तुलना करते हुए उपो‌द्घात के अन्तर्गत यह सिद्ध किया गया है कि प्राचीन-कालीन आयुर्वेदीय चिकित्सा विज्ञान, आधुनिक चिकित्सा-विज्ञान से किसी भी स्तर पर कम नहीं था। अपितु आयुर्वेद में 'कार्य-कारण वाद' के सिद्धान्त पर की जाने वाली विविध चिकित्सा (1) दैवव्यपाश्रय चिकित्सा, (2) युक्ति व्यपाश्रय चिकित्सा तया (3) सत्वावजय चिकित्सा। साथ ही 'निदानं परिवर्जनम् का सिद्धान्त', त्रिदोषवाद, आस्तिक- दर्शन, अष्टांग योग, रात-दिन एवम् ऋतु अनुसार की जाने वाली दिनचर्या एवम् ऋतुचर्या का वर्णन एवं अध्यात्म वाद को प्रधानता देते हुए 'धर्म' का मार्ग प्रशस्त किया कथन जाना, वास्तविक स्वास्थ्य की दिशा में ले जाना (शारीरिक एवम् मानसिक स्वास्थ्य की प्राप्ति करा आत्म-दर्शन की ओर जीवात्मा को उन्मुख करना), सृष्टि रचना, प्रकृति, पुरुष, बन्धन एवं मोक्ष का ज्ञान कराना आदि-आदि, काय-चिकित्सा में विज्ञान सम्मत पंचकर्म (दोष-निर्हरणार्थ) का उल्लेख व निर्देश- आयुर्वेद की महत्ता, दार्शनिकता एवम् वैज्ञानिकता को स्वतः प्रमाणित कर देता है।

रोगोत्पादक कारणों में इन्द्रिय विषयों का अति संयोग या मिथ्या/हीन संयोग या योग- महर्षि चरक ने माना है। यही बात आधुनिक चिकित्सा विज्ञान भी जीवाणुवाद के साथ मानता है और जीवाणुवाद को प्रधानता देता है। आयुर्वेद को 'जीवाणुवाद' मान्य नहीं । इसके स्थान पर 'त्रिदोषवाद' का सिद्धान्त मान्य है। इस विषय पर भी लेखक ने उपोद्घात के अन्तर्गत प्रकाश डाला है।

वर्तमान सन्दर्भ में आयुर्वेदोक्त सप्तधातु के अन्तर्गत - 'शुक्रधातु' के विषय में काफी भ्रमात्मक एवम् गलत अवधारणा व्याप्त हो गयी है। इसका गलत अर्थ लगाया जा रहा है। 'शुक्र शब्द के कई अर्थ प्रसंगानुसार होते हैं। जहाँ पर 'शुक्र' शब्द के साथ 'धातु' शब्द का प्रयोग होता है, वहाँ पर इसका अर्थ आधुनिक विज्ञानानुसार 'रक्त-कणिकाएँ (Blood-corpuscles)' लगाया जाना चाहिए जिसकी निर्मिति 'मज्जा-धातु' द्वारा होती है। 'शुक्र-धातु' के इस गलत अवधारणा ने आयुर्वेद को हास्यास्पद एवम् अवैज्ञानिक ठहरा दिया । यह अवधारणा कहाँ से आयी ?- शोध का विषय है। शुक्र-धातु एवम् शुक्र-स्राव - ये दोनों ही नितान्त भित्र एवम् पृथक् द्रव्य हैं।

द्रव्यों के अन्तर्गत 'अभ्रक (Mica)' खानों से प्राप्त होने वाला महारसवर्गीय एक द्रव्य है जिसे पार्वती का अर्थात् 'महत् प्रकृति' का 'शुक्र-धातु' कहा गया है।