• Comparative Study of Patanjali Yoga and Jain Yoga- पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन
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Comparative Study of Patanjali Yoga and Jain Yoga- पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन

Author(s): Arun Anand
Publisher: Bhogilal Leherchand Institute Of Indology
Language: Hindi
Total Pages: 344
Available in: Hardbound
Regular price Rs. 1,330.00
Unit price per

Description

पातञ्जलयोग और जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन

पातञ्जलयोग और जैनयोग, दोनों भारतीय दर्शन और साधना की महत्वपूर्ण पद्धतियाँ हैं। दोनों का उद्देश्य आत्मा की मुक्ति (मोक्ष) है, लेकिन उनके रास्ते और दृष्टिकोण में भिन्नताएँ हैं। यहाँ पर इन दोनों का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया जा रहा है।

1. सिद्धांत और दृष्टिकोण

  • पातञ्जलयोग:

    • पातञ्जलयोग का मुख्य उद्देश्य चित्त की वृत्तियों को नियंत्रित करना है, ताकि व्यक्ति आत्मा के शुद्ध रूप को पहचान सके। यह 'योगसूत्र' में वर्णित है, जिसे महर्षि पातञ्जलि ने संकलित किया था।
    • इसमें आठ अंग होते हैं: यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, और समाधि। इनका अभ्यास करके व्यक्ति चित्त के विकारों को समाप्त करता है और आत्मसाक्षात्कार की ओर अग्रसर होता है।
    • पातञ्जल योग के अनुसार, आत्मा और प्रकृति (प्रकृति को 'प्रकृति' और आत्मा को 'पुरुष' कहा गया है) अलग-अलग होते हैं। आत्मा का अस्तित्व स्वतंत्र और शुद्ध है, जबकि प्रकृति के गुणों में उलझकर आत्मा अपना वास्तविक रूप भूल जाता है।
  • जैनयोग:

    • जैन धर्म में योग का उद्देश्य आत्मा को शुद्ध करना और उसे 'केवलज्ञान' (केवलज्ञान) की स्थिति में पहुँचना है। जैनयोग में मुख्य रूप से आत्मा के शुद्धिकरण पर बल दिया जाता है।
    • जैन योग का सिद्धांत पांच 'महाव्रतों' (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, और अपरिग्रह) और तीन 'गुणों' (व्रत, नियम, और साधना) पर आधारित होता है।
    • जैन धर्म में आत्मा को शुद्ध करने के लिए तप, संयम, ध्यान, और अन्य साधनाओं का पालन किया जाता है। यहाँ पर 'संग्रह' और 'विराग' की अवधारणाएँ महत्वपूर्ण हैं।

2. प्रकृति और आत्मा का स्वरूप

  • पातञ्जलयोग:

    • पातञ्जल के अनुसार आत्मा और प्रकृति (प्रकृति या माया) अलग-अलग तत्व हैं। आत्मा शुद्ध और शाश्वत है, जबकि प्रकृति के गुणों से प्रभावित होती है, जो अज्ञान के कारण कर्तृत्व का रूप लेती है।
    • व्यक्ति के जीवन में संकट और बंधन आत्मा के प्रकृति के साथ जुड़ने के कारण होते हैं। जब आत्मा प्रकृति के भ्रम को समझ लेता है और योग के माध्यम से अपने शुद्ध रूप को पहचानता है, तो वह मोक्ष की स्थिति को प्राप्त कर लेता है।
  • जैनयोग:

    • जैन दर्शन में आत्मा शुद्ध और अजर-अमर है, लेकिन उसे अनंत बंधनों में जकड़ा जाता है। यह बंधन कर्मों के कारण होते हैं, और योग का उद्देश्य इन कर्मों का शमन करना है।
    • जैनधर्म में आत्मा का ध्यान अपनी शुद्धता की ओर केंद्रित रहता है और यह कर्मों के प्रभाव को समाप्त करने के लिए सख्त अनुशासन और तपस्या का पालन करता है।

3. ध्यान और समाधि

  • पातञ्जलयोग:

    • ध्यान और समाधि पातञ्जलयोग का अभिन्न हिस्सा हैं। ध्यान का उद्देश्य चित्त के विकारों से मुक्ति पाना और आत्मा के साथ एकात्मता की स्थिति में पहुँचना है। समाधि का शिखर अवस्था है, जब व्यक्ति अपनी अंतरात्मा से पूरी तरह जुड़ जाता है और उसका चित्त स्थिर हो जाता है।
    • यहाँ ध्यान को "धारणा" (ध्यान का पहला चरण), "ध्यान" (गहरे ध्यान का स्तर), और "समाधि" (पूर्ण ध्यान की स्थिति) के तीन स्तरों में विभाजित किया गया है।
  • जैनयोग:

    • जैन योग में ध्यान का उद्देश्य आत्मा की शुद्धता को महसूस करना और उसकी त्रिगुणात्मकता को पार करना है। जैन योग में 'ध्यान' आत्मा के स्वभाव को समझने और उसकी शुद्धता की ओर अग्रसर होने का साधन है।
    • यहाँ ध्यान और समाधि को 'समायम' (अन्तर्मुखता) के रूप में देखा जाता है, जिसमें आत्मा के कर्मों की शुद्धि होती है।

4. कर्म और मोक्ष

  • पातञ्जलयोग:

    • पातञ्जलयोग में कर्म को कष्ट का कारण माना जाता है, और योग साधना का मुख्य उद्देश्य कर्मों के प्रभाव को समाप्त करना है। योगी का लक्ष्य आत्मा की शुद्धता है, जिससे वह अपने सच्चे रूप को पहचान सके और कर्मों से मुक्त हो।
    • योग के माध्यम से जो व्यक्ति आत्मज्ञान प्राप्त करता है, वह मोक्ष की अवस्था में पहुँचता है।
  • जैनयोग:

    • जैन योग में कर्म का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। यहाँ कर्मों को अच्छे और बुरे के रूप में देखा जाता है, जो आत्मा के बंधन या मुक्तता का कारण बनते हैं।
    • जैन योग में तपस्या, संयम, और ध्यान के माध्यम से कर्मों का शमन किया जाता है, जिससे आत्मा को मोक्ष की प्राप्ति होती है।