• Laghusiddhantakaumudi: लघुसिद्धान्तकौमुदी (Hindi) by Dr. Somlekha
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Laghusiddhantakaumudi: लघुसिद्धान्तकौमुदी (Hindi)

Author(s): Dr Som Lekha
Publisher: Chaukhamba Sanskrit Pratishthan
Language: Sanskrit & Hindi
Total Pages: 824
Available in: Paperback
Regular price Rs. 700.00
Unit price per

Description

भारतीय मनीषियों, जिन्हें त्रऋषि, महर्षि और आचार्य की आख्या प्राप्त थी, ने ज्ञानविज्ञान की प्रत्येक शाखा का तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त किया था। यह उनकी तपस्या और शोध का ही परिणाम था कि प्राचीन काल में भारत वर्ष में ज्ञान की प्रत्येक विधा अपने चरम तक उन्नत थी। इसी श्रृंखला में संस्कृतव्याकरण के क्षितिज पर एक जाज्वल्यमान नक्षत्र का उदय हुआ जिनका नाम आचार्य 'पाणिनि' था। इनकी एकमात्र रचना आठ अध्यायों में विभक्त होने के कारण 'अष्टाध्यायी' नाम्ना विख्यात है। यद्यपि आचार्य पाणिनि के काल और जन्म स्थान के सम्बन्ध में विद्वानों में अत्यधिक वैमत्य है, तथापि उनकी रचना संस्कृत जगत् में चूडामणिवत् समादृत है।

अष्टाध्यायी आठ अध्यायों में विभक्त है। प्रत्येक अध्याय चार-चार पादों में विभक्त होने से अष्टाध्यायी में कुल 32 पाद है। आचार्य ने अपने शास्त्र में लाघव को अत्यधिक महत्त्व दिया है। फलतः समग्र ग्रन्थ सूत्र शैली में निबद्ध है। सूत्र वह अर्थवान् वाक्य है जिसमें क्रियापद का अभाव होता है। इसका अर्थ करने के लिए हमें 'भवति' अथवा 'स्यात्' जैसे क्रिया पदों को उधार लेना होता है। अष्टाध्यायी में भित्र-भित्र विद्वानों के द्वारा सूत्र संख्या 3970 से 3996 तक स्वीकार की गई है। ग्रन्व के सभी पादों में सूत्रसंख्या एक समान नहीं है। किसी पाद में अत्यधिक अधिक (219 तक) तया किसी पाद में अत्यधिक न्यून (38 तक) है।

पाणिनि के कतिपय शताब्दी पश्चात् आचार्य 'कात्यायन' ने वार्त्तिकों की रचना की। अष्टाध्यायी के सूत्रों के विषय को स्पष्ट करना तथा सूत्रों के द्वारा अनुक्त विषय का कयन ही वार्त्तिकों का प्रतिपाद्य है। वार्त्तिकों का कोई स्वतन्त्र पाठ प्राप्त नहीं होता है। अधिकांश वार्तिक महाभाष्य में प्राप्त होते हैं। काशिकावृत्ति में कुछ प्राचीन आचार्यों के वार्तिक प्राप्त होते हैं। आचार्य कात्यायन के कुछ शताब्दी पश्चात् आचार्य 'पतञ्जलि' का आविर्भाव हुआ। मुनित्रय में पाणिनि और कात्यायन के पश्चात् पतञ्जलि का नाम आदर के साथ लिया जाता है। आचार्य पतञ्जलि की रचना 'महाभाष्य' नाम से विख्यात है। यह अष्टाध्यायी पर लिखा गया एक प्रामाणिकतम विवरण ग्रन्थ है।

अष्टाध्यायी पर संस्कृत में अनेक वृत्तियाँ लिखी गई। इस परम्परा में प्रमुखतः दो सरणियों का उदय हुआ-लक्षणप्रधान वृत्ति तथा लक्ष्यप्रधान वृत्ति ! (क) लक्षणप्रधान वृत्ति को प्रकरणानुसारी व्याख्यान कहते हैं। इसमें सूत्रक्रम को भङ्ग किए बिना व्याख्या की जाती है। काशिका वृत्ति प्रकरणानुसारी व्याख्यान है। (ख) लक्ष्यप्रधान वृत्ति को प्रक्रियानुसारी व्याख्यान कहा जाता है।