• Jaina Bhasa Darsana- जैन भाषा दर्शन (1986 Edition)
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Jaina Bhasa Darsana- जैन भाषा दर्शन (1986 Edition)

Author(s): Prof. Sagar Mal Jain
Publisher: Bhogilal Leherchand Institute Of Indology
Language: Sanskrit & Hindi
Total Pages: 114
Available in: Hardbound
Regular price Rs. 420.00
Unit price per

Description

जैन भाषा दर्शन (Jain Philosophy of Language) जैन धर्म के दार्शनिक दृष्टिकोण से संबंधित है, जिसमें भाषा और उसके उपयोग को अत्यधिक महत्व दिया जाता है। जैन दर्शन की बुनियादी विशेषताएँ उसके शास्त्र, तत्त्वज्ञान, और आचारविचारों में निहित हैं, जिसमें भाषा का प्रयोग सत्य को व्यक्त करने और समझने के लिए महत्वपूर्ण होता है।

1. सत्य और भाषा:

जैन दर्शन में सत्य को अत्यधिक महत्व दिया जाता है, और इस सत्य को व्यक्त करने के लिए भाषा का उपयोग किया जाता है। जैन सिद्धांत के अनुसार, सत्य अनंत और अपरिवर्तनीय है, जबकि हमारी भाषा और शब्द सीमित और परिवर्तनीय होते हैं। इसलिए, जैन दर्शन में शब्दों और उनकी सीमा के बारे में सतर्कता बरती जाती है। यह विचार "अनेकान्तवाद" (Anekantavada) पर आधारित है, जिसमें कहा जाता है कि किसी भी सत्य को एकल दृष्टिकोण से नहीं देखा जा सकता, बल्कि उसे कई दृष्टिकोणों से समझा जाना चाहिए।

2. अनेकान्तवाद (Anekantavada):

अनेकान्तवाद जैन दर्शन का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है, जिसमें यह बताया जाता है कि किसी भी वस्तु या सत्य के कई पहलू होते हैं, और हर पहलू को विभिन्न दृष्टिकोणों से देखा जा सकता है। यह सिद्धांत भाषा के उपयोग में सावधानी बरतने की आवश्यकता को दर्शाता है, क्योंकि कोई भी शब्द पूरी तरह से सत्य को व्यक्त नहीं कर सकता।

3. नय (Naya) और पर्याय (Paryaya):

जैन दर्शन में भाषा के संदर्भ में "नय" और "पर्याय" जैसे महत्वपूर्ण शब्दों का उपयोग किया जाता है। नय का मतलब है "दृष्टिकोण" या "दृष्टि", और पर्याय का मतलब है "वह रूप" जिसमें किसी वस्तु का वर्णन किया जाता है। जैन दर्शन के अनुसार, किसी भी वस्तु को पूरी तरह से समझने के लिए हमें विभिन्न दृष्टिकोणों से उसका मूल्यांकन करना चाहिए।

4. वाचिकता (Verbal expression) और सूक्ष्मता:

जैन दर्शन में यह माना जाता है कि भाषा का उपयोग करते समय वाचिकता को ध्यान में रखते हुए हमें सूक्ष्मता और शुद्धता की आवश्यकता होती है। इसका कारण यह है कि शब्दों के माध्यम से व्यक्ति अपनी विचारधारा और आस्थाएँ व्यक्त करता है, और यदि भाषा में स्पष्टता और शुद्धता न हो, तो इसका गलत अर्थ निकल सकता है।

5. निराकरण और अपौरुषेय:

जैन दर्शन में निराकरण का मतलब है कि किसी भी शब्द या विचार को एक विशेष संदर्भ में निराकार करना। अपौरुषेय का अर्थ है, वह ज्ञान या शास्त्र जो मनुष्य के अनुभव से परे होता है और जो अलौकिक है। जैन धर्म में भाषा को सिर्फ तात्त्विक रूप से नहीं, बल्कि आत्मा और ब्रह्म के स्तर पर भी समझा जाता है।